meriabhivyaktiya
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सृजन सृष्टि
का चलता
प्रतिपल,,,,
सरिधार बहे
ज्यों निर्झर
कल-कल,,
प्रश्न जुड़े
जब ‘कारण’
से,,,,,,
एक नूतन
सिरजन अस्तित्व
लिए,,,
नव शोध,निष्कर्ष,
निर्धारण से,,,
एक सोच
लहर सी आती है
मन चेतन सजग
बनाती है,,
सब इंद्रियां संचालित
हो जाती हैं
एक चक्र सृजन
का चलता है,,
कुछ नवल नया
गढ़ जाती हैं,,,
माटी का मोल
नही होता,,
पर जीवन का
अंत वहीं सोता,,
वही माटी सोना
बनती है
जब चाक कुम्हार
के चढ़ती है,,
कितने रूपों में
ढलती है
और कितने सृजन
गढ़ती है,,,
यह जीवन समझो
माटी सम
मत भूलो अपना
अंत गमन,
तो क्यों ना हम
कुम्हार बनें?
नित सुन्दर कृतियां
चाक ढले,
जो आत्मसंतुष्टि
देता हो,,
सृजन महत्ता
कहता हो,,,
लिली
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