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मथनी मन की

meriabhivyaktiya
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परमात्मा का
अंश आत्मा,
मिलकर बने
एक दिव्य
ज्योति पुंज,
एक विराट
ऊर्जा कुंड,,,

एक सूर्य,
करता सम्पूर्ण
ब्रह्मांण को
ऊर्जायमान्
दैदिप्यमान्

एक पदार्थ,
अनगिनत
अणुओं का
संघटित रूप
ठोस,द्रव्य,गैस
को देता स्वरूप

सूर्य की
धधकती गात,
नही पड़ती
निस्तेज,करती
सह्स्त्राब्दियों से
सृष्टि का संचार
किन्चिद वह
भी तो पाती
होगी सूक्ष्म
ऊष्मा रश्मियों
से भभकते
कुंड में आग?
परावर्तन का
सिद्धांत तभी
शोध पाया
होगा विज्ञान!

यदि देता है ऊर्जा
तो सोखता भी
होगा ऊर्जा दिव्य
दिवाकर महान!
ब्रह्मांण अपना
अस्तित्व बनाए
रखने के लिए
नित्य गढ़ता नए
ग्रह-उपग्रहों सम
निमित्तो का जहान,,
वरना तो कब का
खुद के हवन-कुंड
में जल कर हो जाता
भस्म आयुषमान!!

विश्वरूप में पाते
प्रतिक्षण कितने
आत्मअंश स्थान
रोग,जरा,दुर्घटनाओं
में खोता मानव प्राण
सृजन-विनाश की
यह आहुतियां
जिलाए रखती हों
किन्चिद ‘विश्वरूप’
का विराट अभिमान,,

सृष्टि की दिव्यता,
अलौकिकता रखने
को अक्षुण्य,पुण्य
आत्माओं के विलयन
का रचा होगा प्रावधान
वेद-पुराणों ने कह डाला
इसे विधि का विधान,,,

मन की मथनी
मथे नित नए
मंथन अविराम
निष्कर्षहीन,
किन्तु कुछ तो
लिए होगा अंश
सत्यता का विद्यमान,,,

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