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जब भी बैठती हूँ
खुद के साथ अपनी
हथेलियों को बड़े गौर
से देखती हूँ,,,,
आड़ी तिरछी इन लकीरों
में ना जाने क्या खोजती हूँ,,
सिकोड़ कर कुछ गाढ़ी
खिंची लकीरों की गहराई
नापती हूँ,,,
पता नही इन गहराइयों में
खुद को कहाँ तक डूबा
देखती हूँ????
सोचती हूँ,क्या सच में मेरी
ज़िन्दगी इन रेखाओं से
आकार पाती है,
मेरी मुट्ठी में रहकर
भी मेरी किस्मत
मुझे नचाती है,,,,!!
जो गुज़र गया वह भी तो
दर्ज होगा यहीं,
पता चल जाए कहाँ?
तो मिलाऊँ के,जो खिंचा था
जी आई हूँ वही,,,,
अजब दस्तकारी है
खुदा की,
इंसा की जिन्दगी
उसकी ही
हथेलियों में पहेलियों
सी सजा दी,,
कुंजी को कर्मों के गहरे
समन्दर में गिरा दी,
किसी तिलस्मी कहानी
की तरह,
हर रोज़ नए मक़ामों
से गुज़रती हूँ
एक से उबर दूसरे में
जा फंसती हूँ
कभी दो घड़ी मिली
फुरसत तो बैठ कर
हथेलियां तकती हूँ
इन उलझी लकीरों
को समझने की
एक नाकाम कोशिशें
करती हूँ,,,
लिली
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