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क्यों हरबार औरत को विषय बनाएं??

meriabhivyaktiya
meriabhivyaktiya
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रचनाकारो से कह दो
खुली छाती और चिथड़ों
में लपेट किसी औरत को,
अपने सृजन पर ना इतराएं
कभी विकृत मनोभावों और
कुलषित विचारों की अंधेरी
कोठरी में छुप छुप कर रोते
पुरूषों को अपने सृजन का
विषय बनाएं,,,,,,

कहकर,रोकर सबके सम्मुख
औरतें खुद को संभाल लेती हैं
वह धरा सम हर विकारव्यवहार
डकार लेती है,उन पुरूषों को
चाहिए सहानुभूति आपकी जो,
पौरूष के झूठे दंभ में अपना दर्द
हैं छुपाते,दमित कुंठाओं के उद्गारों
से समाज को विकृत हैं बनाते,,

ईश का सृजन दोनों,क्यों किसी
एक पर हो चर्चा? कभी पुरूष
भी अपने मन की खोह में दबे
दर्द,भय,अहम्,उत्पीड़न,शोषण
के चीथड़ों में लिपटा अपना वजूद
दिखलाएं,क्यों हर बार औरत को
ही आयोजनों का विषय बनाएं,,?

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