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शिव सम
साहित्य मेरा,
शान्त,स्निग्ध,
सौम्य,सुन्दर
लीन है अभी
ध्यान योग में,
भावनाएं मेरी
गौरी सम,चाहती
हैं उसे जागृत करना
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,,,
उसे समर्पित
करनाचाहती हूँ
तपस्या मेरी,,
कर अर्पित मेरी
संवेदनाओं के
बेलपत्र,शब्दों
का दुग्धाभिषेक
मदार,धतुर से
उद्गार,मधु लेप
से रसालंकार,
सब उसे अर्पण
करना चाहती हूँ,
भावाभिव्यक्तियां को
गौरी बना उसे वरण
करना चाहती हूँ,,
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,,,
हो प्रसन्न मेरे
तप अर्चन से
जब वह खोलेगा
अपने योग मुदित
नयन,देखेगा मुझे,
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
दृष्टि से, मै शिवमयी
हो उसे खुद में समाहित
कर,बह जाऊँगीं,,,,
बन भावभागीरथी
स्वर्ग से धरा तक
अंतस से बाह्य तक
शिव सम
साहित्य मेरा,,,,
चिरकाल से
हृदय कैलाश में
तपलीन, वह मेरी ही
तलाश में शायद
मै भी सती से
पार्वती सी तुम
से तुम तक पहुँचने
को अधीर,कितने
युग,कितने युग्मों
से उलझती निकलती
आ पहुँची हूँ,अपने
इष्ट के निकट
अपने शिव के निकट
अपने साहित्य के निकट
शिव सम
साहित्य मेरा,
शान्त,स्निग्ध,
सौम्य,सुन्दर
लीन है अभी
ध्यान योग में,,,
लिली
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