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पर्यावरण सुरक्षा सर्वोपरि

meriabhivyaktiya
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सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार दिल्ली में पटाखों पर बैन ने केवल दिल्ली ही नहीं, पूरे भारतवर्ष में हाहाकार मचा दिया है। लोग क्षुब्ध हैं, रोष से भरे पड़े हैं कि बिना पटाखे कैसी दिवाली? व्हट्सऐप पर इस आदेश के विरोध में तमाम कटाक्ष कसे जा रहे हैं। हिन्दू धर्म और संस्कृति पर कुठाराघात सा बताया जा रहा है। तमाम तर्कपूर्ण अकाट्य तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं।


crackers


नासा के परमाणु परीक्षण से लेकर 365 दिन यातायात के साधनों द्वारा फैलने वाले प्रदूषणों पर भी विचार करने की सलाह सुझाई जा रही। मैं दिल्ली-एनसीआर में 16 साल से रहती हूँ और अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभव या आंखों देखी आपके सामने रखना चाहती हूँ।


चकरी और फुलझड़ी से मुझे भी कोई आपत्ति नहीं। मैं भी दो पैकेट फुलझड़ी अपने छोटे बेटे को लाकर देती हूँ। परन्तु 300, 500, 1000 लड़ियों वाली देर तक धमाकेदार आवाज़ और धुआं करने वाले चटाई बम चलाना किस बात का प्रदर्शन करना होता है? अथवा किस प्रकार का आनंद प्राप्त होता है? यह समझ नहीं आया मुझे।


यदि आपके घर में कोई बड़े-बुज़ुर्ग हैं और वह अस्वस्थ हैं, कभी सोचा है आपने कि उनके लिए दीपावली का दिन कितना कष्टप्रद होता है? आतिशबाज़ी शुरू होने के घंटे भर बाद, लाख खिड़की दरवाज़े आप बंद कर लीजिए, आपके घर दमघोटूँ धुओं से भर चुके होते हैं।


दिवाली के पश्चात कितने दिनों तक दिल्ली के आसमान पर प्रदूषण की धुंध छाई रहती है, जो कि नानाप्रकार की श्वास सम्बन्धी बीमारियों को जन्म देती है। हमारे नन्हे-मुन्ने बच्चे जिनके ‘बचपन’ पटाखे बैन होने की वजह से छिनते हुए देखे जाने की दुहाई दी जा रही है, वही बच्चे इन पटाखों से फैले प्रदूषण के सबसे अधिक शिकार होते हैं, क्योंकि उनमें वयस्कों सी प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती।


वातावरण में फैले प्रदूषण से एलर्जी, सर्दी, खांसी, बुखार भोगते हैं। दीपावली की मिठाइयों के बाद कठोर एंटीबायोटिक सेवन करने पर मजबूर हैं। सोचकर देखिए उस समय जन्म लेने वाले नवजात शिशुओं को हम क्या परिवेश दे रहे हैं?


कुछ तर्क ऐसे भी उठे कि बारूद की गंध से कीट पतंगें मरते हैं। हर त्योहार के मनाए जाने के पीछे धार्मिक सद्भावना के पीछे एक वैज्ञानिक तथ्य भी होता है। दीपावली में दीप जलाने का एक प्रमुख कारण यह भी है। परन्तु आजकल बिजली की झालरों से सजाए जाने की प्रथा के कारण कीट पंतगें खत्म तो नहीं होते, बल्कि उनकी संख्या में बढ़ाेतरी हो रही है।


पटाखे चलाने की बजाय यदि झालरें कम और अधिक दीप जलाएं तो कीट-पतंगें भी मरेंगे और गरीब कुम्हारों की भी आमदनी होगी। मोमबत्तियों जैसे लघु उद्योगों को भी प्रश्रय मिलेगा। लोगों को पटाखेवालों के जमा स्टाॅक के बेकार जाने की चिन्ता खाए जा रही है, पर यदि कोर्ट के आॅर्डर ना आते, तो क्या वे लोग केवल चकरी और फुलझड़ियां चलाकर संतुष्ट हो जाते, जिनके लिए महंगी अतिशबाजियों का प्रदर्शन करना अपने वैभव और प्रतिष्ठा का प्रतीक लगता है?


नियम-कानूनों का पालन यदि हर नागरिक अपना कर्तव्य समझकर करता, तो शायद ऐसे जनमानस को आन्दोलित कर देने वाले अप्रत्याशित हुक्‍मनामे जारी करने की नौबत ना आती। विदेशों में नववर्ष पर पटाखे अवश्य चलाए जाते हैं, पर वह हमारे देश में बनने वाले अत्यधिक धुएंदार और हृदय कंपा देने वाली आवाज़ों वाले नहीं होते। विदेशों के नागरिकों को अपने घर के साथ-साथ अपने आस-पड़ोस और पर्यावरण का भी ख्याल होता है।


सरकारियों नीतियों मे ढीलापन, बाजारीकरण और उद्योगपतियों की स्वार्थपरता से आंखें नहीं मूंदी जा सकती। परन्तु दोस्तों अगर वह हमारे हित और संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, तो हम तो देख सकते हैं। दिल्ली में रहने वाले लोग दीपावली के बाद होने वाले स्वास्थ को हानि पहुँचाने वाले वातावरण को देखते हैं, दुष्परिणाम भी भुगतते हैं।


आंखों में जलन, सांस संबन्धी कठिनाइयां, खांसी, बुखार, सीने की जलन, दम अटकना जैसी कठिनाइयां हमें ही सहनी पड़ती हैं। जो लोग अन्य प्रांत से हैं और बिना देखे अपनी जगहों पर बेकार की जिरहबाज़ी कर रहे हैं, उनके लिए यह एक पूर्व चेतावनी है। पर्यावरण केवल दिल्ली का ही नहीं प्रभावित हो रहा, आपका शहर भी आज नहीं तो कल चपेट में आएगा।


अतः कोर्ट के फैसले की निन्दा नहीं स्वागत कीजिए। वह चाहे 10 दिन पहले आया हो या एक महीने पहले। आपके और मेरे स्वस्थ हित के लिए शुभ ही है। नासा परमाणु परीक्षण और 365 दिन होने वाले कारकों को रोक पाना हमारी पहुँच से दूर हो शायद, पर पटाखों को न चलाकर हम एक छोटा सा योगदान अवश्य दे सकते हैं।

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