meriabhivyaktiya
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मैं गीत मिलन के
गाती हूँ,
अन्तस से तुमको
ध्याती हूँ,
हे देव मेरे मन
मन्दिर के
मैं प्रीत का दीप
जलाती हूँ।
अब मन बगिया में
बसते तुम,
रजनीगंधा से
महके तुम,
मैं गंध में सुध-बुध
खोती हूँ,
मदमस्त उसी
में रहती हूँ।
जब से तुम जीवन
आधार बने,
बहती नदिया की
धार बने,
मैं नइय्या तुम
पतवार बने,
मैं तुम संग बहती
रहती हूँ।
मनमीत की मैं
मनुहार बनूँ
कहो कब तुमसे
अभिसार करूँ,
श्रृंगार करे मै
बैठी हूँ,
लोक-लाज तज
पैठी हूँ।
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