Menu
blogid : 24183 postid : 1342932

मन्नों का दर्द सपने सजाना सीख गया था

meriabhivyaktiya
meriabhivyaktiya
  • 125 Posts
  • 73 Comments

women

अक्सर छोटी-छोटी गलतियों पर माँ जली-कटी सुनाती थी… अरे जन्मजली! पैदा होते ही मर जात तो अच्छा होत। भाग फूट गए हमार जे दिन तू हमार कोख से जन्म लिए रही। जेकरे घरे जाई ऊ घर के हो नरक बना देई… बहुत ही दुख है तोरे कपाल मा।

बोलते-बोलते हाथ में जो होता उसी से बड़ी निर्ममता से पीट देती थीं मन्नों को। मन्नों दिल में चीत्कार व आंसुओं की धार लिए पिटती रहती थी और कड़वे वचनों का जहर जेहन मे उतारती रहती थी। ज़हर के इन कड़वे घूंटों ने उसे अंदर से एकदम चकना चूर कर दिया था। उम्र ही क्या थी, उसकी यही कोई 14-15 साल। कई बार उसका जी करता की घर से भाग जाए या गांव के कुएं में कूदकर अपनी जान दे दे। पर अपने परिवार की बदनामी का भय उसके पांवों में लगाम दे जाते थे।
एक दिन पड़ोस की चाची गांव के बुधई कुम्हार की बेटी की बात बताने लगीं। उसकी बेटी धनिया ने अपने साथ हुए गलत काम की वजह से आत्मसंतुलन खो दिया और खुद पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्मदाह करने का प्रयास किया। वह मरी तो नहीं, लेकिन बुरी तरह झुलस गई। अब जले हुए घावों ने उसे जीते जी मार तो दिया है, पर वह जीवित है। चाची की कहानी पर मां की वैसी ही उलाहना भरी टिप्पणी… लड़कियन की जान बड़ी सखत होवे है। इतनी जल्दी नाही मरत ये। भगवान ना जाने का खाए के इनकेर बानाए रहे। जो मर जात, तबहीं अच्छा रहत, जिन्दगी भर का लिए मूँग दली बाप-महतारी के छाती पर।
धीरे-धीरे मन्नों ने इन आत्मघाती उलाहनाओं के साथ जीना सीख लिया था। क्योंकि धनिया की पर गिरी गाज़ पर उसकी माँ की टिप्पणी ने उसके मन में घर कर लिया था। उसको लगने लगा कि यदि उसका भी कोई प्रयास विफल रहा तो? मन्नों ने इन झिड़कियों और कड़वी उलाहनाओं को अपना दैनिक आहार बना लिया। अब वह ढीठ हो चुकी थी। कभी-कभी उसे वही एक तरीके की बातें सुनकर हंसी आ जाती थी।

माँ उस पर और खिसिया जातीं… देखा हो भूरे (भाई) के पापा, कैसन निरलज होय गई है तोहार दुलारी, जाए देयो ससुराल, सास के जब लाठी पड़ी तब भाग के आई हमरे द्वारे। पर सुन ले कान खोल कर हम नहीं घुसे देब अपने घर मा। ईसवर जाने कब इस कुलक्षनी से हमार जान छुटी।
मन्नों का दर्द सपने सजाना सीख गया था। शायद इसीलिए उसे अब उतनी तकलीफ नहीं होती थी। हमारे समाज मे ऐसी मन्नों की भरमार आज भी है। भले ही हम आधुनिकता का तथाकथित आवरण अपने समाज को पहनाने का दावा करते हों। एक औरत ही औरत की शत्रु है? या मन्नों की माँ बचपन से ही उसे नारी जीवन की सत्यताओं का आभास कराने का प्रयास कर रही थी?  जितने भी दमघोंटू परिवेश में जीवन पटक दे, हम औरतें जी लेती हैं, मुस्कुरा लेती हैं, सपनों की दुनिया के आवरण में अपना यथार्थ छुपा लेती हैं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh