meriabhivyaktiya
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खुद ही रणभूमि सजाई है,
खुद से ही हाथा-पाई है।
रच डाले कितने चक्रव्यूह,
अभिमन्यु सी स्थिति आई है।
खुद के ही गर्भ से जनितशत्रु,
मुझ पर ही करते तीक्ष्ण प्रहार।
कट-कट कर गिरते अंग-प्रत्यंग,
अन्तर मन लगभग धराशायी है।
मौन भरे हूंकार,आ दुष्ट समक्ष,
क्यों करता छुप छुपकर प्रहार?
कितनो को मार गिराया है,
कितनों की बारी आई है।
अश्रु नही अब रक्त बहे,
कटु सत्यों के घाव सहे।
कोई तो निष्कर्ष मिले अब,
कई दिनों की सांझ ढल आई है।
संहार हो रहा निर्ममता से,
जो भाव सुकोमल,नर्म सरीखे थे।
पाषण खड़े अब उन जगहों पर,
अभिव्यक्ति बड़ी दुखदाई है।
अभिमन्यु सा तोड़ चक्रव्यूह,
दोनो हस्तों मे तलवार उठाई है।
खुद की रचना को भेदूँ कैसे ,
विकट समस्या मुहँ बाई है।
अट्टाहासों से गूँज रहा सब ,
विकराल बड़ा भयदायी है।
इस महाभारत से निकलूँ कैसे,
यह ग्रन्थ मुझ से ही जाई है।
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