Menu
blogid : 24183 postid : 1332718

अभिव्यक्तियां आज बौराई हैं,,,,

meriabhivyaktiya
meriabhivyaktiya
  • 125 Posts
  • 73 Comments

आज अभिव्यक्तियां बौराई सी हैं,,,,।एक माला के मोती सी,,,, खींच कर डोर टूट गई,,,मोती जैसे बंधनमुक्त हो ऊपर से नीचे गिर कर बिखर रहे हैं। हर एक मोती मे एक अलग उछाल है,,,अलग आवाज़ आती है,,जब वह धरातल को छूता है। छटक कर दूर,,दूर भाग रही हैं,,। मैं उन्हे समेटने के प्रयास मे,,,उनके पीछे भाग रही हूँ ,, बैठ रही हूँ,,झुक रही हूँ,,सोफे,,पलंग,,मेंज़-कुर्सियों के नीचे हाथ बढ़ा कर पकड़ने की कोशिश कर रही हूँ। अभिव्यक्तियां बंधन मुक्त मोती सी उछल रही हैं,, छिप रही हैं,,,भाग रही हैं,,और मै इन बौराई मोतियों संग इनके पीछे-पीछे भाग रही हूँ, इनके संग क्रीड़ा कर रही हूँ।
अभिव्यक्तियां आज बौराई हैं। एक धुन मे डूबी उधड़ रही हैं,,,,। अब तक किसी पुराने स्वेटर मे गुथे ऊन सी किसी बंधन मे लाचार सी संदूक के नीचे दबी हुई,,,,,। आज निकाल लिया उसे बाहर,,सोचा आज़ाद कर दूँ ऊन को ,,,। सिरे पर गांठ थोड़ी कसी हुई सी थी,,। मशक्कत लगी हल्की सी,,,पर खोल लिया मैने,,,अभिव्यक्तियां मेरी उंगलियों के स्पर्श को पाकर जैसे भांप गई थी अपनी आज़ादी पैगाम,,,। वो बेचैन हो उठीं,,,उधड़ने को बेताब हो उठीं,,,। और मैने भांप ली थी उनकी उत्कंठा उन्मुक्त होने की,,, फंदों के छल्लों से,,,। बहुत कसाव सह रही थी मेरी ऊन रूपी अभिव्यक्तियां ,,।लगता था कुछ दिन और यही कसाव रहा तो ऊन खुद ही टूट जाता।मैने भी इस दबाव और कसाव को हौले हौले मुक्ति प्रदान करने की ठानी,,, ऊन के सिरे को धीरे-धीरे खींचना शुरू किया,,’फंदों’ के छल्लों से स्वतंत्र होते ऊन,,,,बंधनों से स्वतंत्र होती अभिव्यक्तियां,,,,,,,,,,,,। एक सुर हर ‘उधेड़’ मे था,,,,जैसे दमघोटूँ वातावरण से निकलने के बाद,,अभिव्यक्तियों ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ा हो,,,,,आहहहहहहहहहहहहहह!!!!!
मेरे हाथों की उंगलियों ने ऊन को धीरे-धीरे तो कभी जल्दी-जल्दी फंदों के छल्लों से मुक्त करते हुए एक अव्यक्त सुख की अनुभूति प्राप्त की।
आज अभिव्यक्तियां बौराई हैं,,,,जैसे पिंजरे मे बंद पंक्षी। पिंजरा का रूख खुले आसमान की तरफ कर उसका मालिक नियमित रूप से बस दाना पानी डाल जाता है,,,। बेचारा पक्षीं विस्तृत आसमान को देख अपनी विवशता पर विषाद करता,,,,बिना श्रम के मिल रहे दाने-पानी को बेमन से खाता,,बस पड़ा रहता है,,,। पर यह अचानक क्या हुआ,,,,मालिक भी मेरी अभिव्यक्तियों सा बौरा गया क्या?????!!!!!! उसने धीरे से पिंजरे का फाटक खोल दिया,,,,, अरे क्या हुआ इसे ,,,!!!!! हतप्रभ सा पंछी,,,! कभी पिंजरे के खुले फाटक को देखता,,,तो कभी ऊपर फैले फ़लक के फैलाव को,,,। पर अब पक्षी भी बौरा गया,,,,,,,, आव देखा ना ताव,,,,ज़ोर से पंख फड़फड़ाए और पिंजरे से बाहर निकल सामने लगे बिजली के तार पर जा बैठा,,,। अचानक मिली बौराई उन्मुक्तता के आवेश को शायद थोड़ा हज़म करने के लिए ,,,। फिर जो उसने उड़ान भरी ,,,, वो नज़रों से ओझल हो गया,,,,। अभिव्यक्तियों सा बौरा गया,,,वह उड़ गया,,,और उड़ता रहा।
अभिव्यक्तियां आज बौराई सी हैं,,,,। मेरे घूँघरूओं की तरह,,,।मन एक निश्चित ताल का ‘पढन्त’ कर रहा है, पर घूँघरू मनमानी कर रहे हैं,,,मन को अपनी झंकार से भटका रहे हैं,,,। पैरों को बरबस अपनी मनोनकूल ध्वनि निकलवाने के लिए धरती पर थाप दिलवा रहे हैं,,,,। झनक से समस्त इन्द्रियां आकर्षित हो रही हैं,,,और ये ‘मनचले’ अपनी शैतानी पर अमादा हैं,,, कभी छन्नऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ तो कभी झन्नऽऽ,झन्नऽऽऽऽऽऽऽऽ ,,,छनऽ छन,,छनछनछनछननननन् ,,,,,,आज सब बौराए हैं। ताल के ‘पढ़न्त’ को दर किनार पटक,,, मेरे घूँघरू की अभिव्यक्तियां भी पूरी तरह बौरा चुकी हैं,,,,। अपनी ही धुन और ताल पर सब नचा रही हैं,,,,,।
अभिव्यक्तियां आज बौराई हैं,,,कभी माला के मोती सी धागे से खुद को निकालकर चंचल हो बिखर रही हैं। तो कभी संदूक के नीचे दबे स्वेटर के ऊन सी,,,स्वयं को फंदो के छल्लों मुक्त करा दीर्घ निःश्वास के साथ उन्मुक्त होने आनंद ले रही हैं। पिंजरे में बंद पंक्षी को आज़ाद कर फ़लक के फैलाव सी असीम हो उड़न भर रही हैं। तो कभी मेरे घूँघरूओं सी मतवारी हो छनऽऽछना कर नाच उठी हैं,,। मैने भी इनके संग कुछ पल इनकी बौराई दुनिया मे खुद को उन्मुक्त छोड़ दिया है। बौरायापन मेरे शब्दों मे नाच उठा है,,, भावों मे छनछनाऽऽऽ उठा है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh