Menu
blogid : 24183 postid : 1327955

सुरक्षा का मांझा,,,,,नियन्त्रित उड़ान

meriabhivyaktiya
meriabhivyaktiya
  • 125 Posts
  • 73 Comments

आज आसमान देखने मे डर लग रहा है। इसका फैलाव भयावह है,,,पता नही उड़ते-उड़ते किस छोर पर पहुँच जाऊँ,,,???? वैसे तो इसका कोई ओर-छोर नही,,,व्यक्ति की उन्मुक्तशीलता की क्षमता है वह कितना उड़ सकता है या कितनी दूर तक जा सकता है।आज ज़मीन पर ही दृष्टि गड़ा रखी है।धूल-मिट्टी,कंकड़-पत्थर,गन्दगी जैसी भी है ,,पैर यथार्थ पर खड़े हैं, ठोकर खा रहे हैं और सम्भल रहे हैं।
आंखे देख रही हैं, कान सुन रहे हैं,,,मन बेकाबू नही हो पाता,,सड़कों को पार करना है,,चौराहों से गुजरना है, गढ्ढों को लांघना है, कीचड़ से बचना है। मतलब कि- व्यक्ति को चौकन्ना रहना है। एक प्राकृतिक ,स्वाभाविक बंधन मे रहकर खुद को आगे बढ़ाना है,,,उड़ना नही है,,,,। इसके विपरीत उन्मुक्त आसमान में बिना किसी बाधा के,, आंख,नाक,कान सबको बंद कर चंचल मन को सर्वाधिकार देकर निर्बाध रूप से उड़ने की अनुमति देना,,,,,,,,परिणाम घातक हो सकते हैं!!!!!!!
अतृप्त इच्छाओं की ‘वाष्पित जल-बिन्दुएं’ अपनी ओर आकर्षित करने लगती हैं,,,। हवाओं के वेग हमें बहते रहने को उत्सुक करने लगता हैं,,क्योंकी यहाँ कोई बंधन नही,,कोई ठोकर नही,,,,बस,,फैलाव है ,,,अतिविस्तृत,,अशेष।धरातल से जुड़े कर्तव्यों से विमुख कर देता है,,,दैनिक दिनचर्या को क्षत-विक्षत् कर देता है। स्वप्निल संसार का आकर्षण ईंट ,बालू से बने यथार्थ को खंडहर बना देता है।
ओर-छोर विहीन आकाश मे विचरते हुए,,,क्षमताशीलता के पस्त हो जाने पर,,,जो कि स्वाभाविक है, पस्त होना,,,,,जब अपने स्वप्न से जागते हैं,,। उनीदीं आंखों मे हल्की नींद लिए पैरों से टटोलते हुए,,,,तीव्रगति से नींचे की ओर गिरते हैं,,,। ‘पृथ्वी का गुरूत्वाकर्षण’,,, या यथार्थ की पुकार,,जो भी संज्ञा से परिभाषित किया जाए,, एक ही है। उल्कापात से हम दिशाविहीन,, नियंत्रणविहीन,,पतन की तरफ अग्रसर,,,,,,,।
एक बंधन,,एक नियंत्रण अनिवार्य है।फिर चाहे धरातल पर विचरण करो या आसमान में उड़ो। अपनी डोर किसी एक आत्मीय परिजन के हाथ समर्पित कर दो। जो आपको उड़ते हुए देख आनंदित भी हों,,और अशेष,विस्तृत,बधारहित परिवेश मे पहुँच अनियन्त्रित होते देख चिंतित भी।
कल्पनाओं के पंख चिरस्थाई नही होते,,,काल्पनिक होते हैं। पक्षियों के पर वास्तविक और ईश्वर प्रदत्त होते हैं। हम पंक्षी नही बन सकते,,मात्र कल्पना कर सकते हैं। ईश्वर प्रदत्त पंख पंक्षियों पर एक प्राकृतिक नियंत्रण है,,,। वह भी एक आवश्यक उड़ान भर किसी पेड़ की शाख या किसी छत की मुंडेर पर बैठ जाते हैं। उनका कर्मस्थल असीमित आकाश होता है,,वह अभ्यस्त होते हैं होते हैं इस अशेषता के। परन्तु मनुष्य बुद्धिजीव प्राणी है,,, अतः उसे जो प्राप्त है उसका भोग करता है और जो अप्राप्त है उसकी कल्पना कर कृत्रिम रूप से अविष्कृत कर उसका रस लेना चाहता है।इस सत्य से परे कि-कृत्रिमता प्राकृतिकता का मुकाबला नही कर सकती,,क्षणिक होती है।
कश्मकश का अन्त हो चुका है,,,सौभाग्यशाली होते हैं वे जिनकी डोर किसी आत्मीय परिजन के हाथ बड़ी मजबूती से पकड़ी गई होती है। वे पंतग की तरह उड़ने देते हैं,,,अपनी सुरक्षा का मांझा बहुत मजबूत रखते हैं,,,,आसपास से होने वाले प्रहार से इसे काट पाना इतना सहज नही होता।
मेरा आसमान भयमुक्त,,,,,, फिर से एक नई उड़ान भरने को तैयार,,,,,,,,,,

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh