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‘भाषा’ अभिव्यक्ति का माध्यम्,,,,,,,स्वार्थपूर्ति का साधन नही

meriabhivyaktiya
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‘भाषा’,,, एक माध्यम जिससे हम अपने भावों और विचारों को बोलकर,लिखकर या सुनकर अपनी बात किसी को समझा या बता सकते हैं। यह ‘भाषा’ की सबसे सरलतम् परिभाषा ,,जिसे किसी भी भाषा विशेष के ‘व्याकरण’ के प्रथम अध्याय मे व्याख्यापित किया जाता है। ‘भाषा’ शब्द का अंकुर जब पुस्तकीय गर्भ से बाहर निकल मानवीय पर्यावरण मे अपनी सरलतम् परिभाषा के साथ पल्लवित होता है, तब वह कई शाखाओं-प्रशाखाओं मे बंट एक पौध से वृक्ष का रूप धारण करता चलता है।
पुस्तक मे भाषा की परिभाषा को व्याख्यापित करने से बहुत पहले भी भाषा का एक बहुत मृदुल और वात्सल्यमयी अस्तित्व होता है। नवजात शिशु की भी एक भाषा होती है,,, जिसकी परिभाषा को किसी शब्द-समूह मे नही बांधा जा सकता। उसका क्रन्दन,,मातृ-स्पर्श,नाना प्रकार की ध्वनियां, हाथ-पांव को झटकना एक नवजात शिशु की भाषा होती है। तो यहाँ भी हम भाषा का अस्तित्व एक बहुत कोमल और वात्सल्य रूप मे पाते हैं। भले ही अर्थपूर्ण शब्दों के वाक्य समूह यहाँ नही देखने को मिलता,,, परन्तु फिर भी एक नवजात शिशु भी अपनी बात,अपने भाव अपनी माता तक पहुँचा देता है ।
शनैः शनैः इन्द्रियों के विकास के साथ-साथ शिशु की भाषा भी विकसित होती जाती है। माँ द्वारा सिखाया गया प्रथम अर्थपूर्ण शब्द ‘माँ’ बालक उच्चारण करना सिखता है, और फिर तो आस-पास के पर्यावरण को देख,,अपने परिवारजनों के द्वारा बोले जाने वाले आपसी संवादों को सुन,,,एक बालक का धीरे धीरे भाषा ज्ञान विस्तार पाता जाता है। यह भाषा का ‘व्यक्तिगत स्तर’ है।
पारिवारिक परिवेश से बाहर निकल जब बालक विद्यालय मे प्रवेश करता है तब शुरूवात होती है भाषा के ‘सामाजिक स्तर’ की। यहाँ से भाषा के कई रूप,कई प्रकार बालक के सामने प्रकट होते हैं। उसे लगता है जो भाषा वो अपने पारिवारिक परिवेष मे व्यवहार करता है उससे अलग भी कई और माध्यम हैं जिनसे व्यक्ति अपने भावों अथवा विचारों को बोलकर,लिखकर,सुनकर समझा सकता है।
पुस्तकीय ज्ञान से वह ‘भाषा के सामाजिक स्तर’ को व्याकरण एंव लिपि के नियमबद्ध अध्ययन द्वारा आत्मसात करता है।यह अति महत्वपूर्ण चरण है,,क्योकि व्यक्ति को अपना जीवन चलाने हेतु जीविकोपार्जन की आवश्यकता होती है। और बालक के जीवन का यह अध्ययनकाल उसके जीविकोपार्जन का आधार निर्धारण करता है।
यदि भारत जैसे बहुभाषीय देश का नागरिक हो तो भाषा के कई प्रकार देखने को मिलते हैं। साथ ही साथ ‘भाषावाद’ नामक एक नया ‘कारक’ उभरता है। प्रान्तीय,क्षेत्रीय स्तरों पर भाषा मे वैभिन्नय देखने को मिलता है,,,, और भाषा का ‘राजनैतिक स्तर’ अपना परिचय कराता पंक्तिबद्ध दिखाई देता है।
भाषा के इस राजनैतिक स्तर’ मे एक व्यक्ति विशेष को अपने विचार और भाव बोलकर,लिखकर या सुनकर समझाने के लिए उस राज्य या क्षेत्र विशेष मे बोली जाने वाली भाषा का ज्ञान होना आवश्यक हो जाता है। और ‘मातृभाषा’ का अस्तित्व प्रकाश मे आता है। अर्थात भारत जैसे बहुभाषीय देश के जिस प्रांत के आप मूल निवासी हैं ,,वहाँ बोली जाने वाली भाषा आपकी ‘मातृभाषा’ बन जाती है। तो इस प्रकार मात्र ‘स्पर्श’ और’क्रन्दन’ ‘से शुरू होने वाली भाषा का विकास कितना वृहद् रूप धारण करता जाता है।
विकास के इस क्रम मे वृहदत्तम् रूप धारण करने वाली भाषा मे कुछ जटिलताएं आना अतिस्वाभाविक है। विभिन्नताओं को देखते हुए पूरे देश को एक सूत्र मे बांधे रखना प्राथमिकता बन जाती है,,,,और यहाँ भाषा का ‘राष्ट्रीय स्तर’ आकार लेता दिखता है। अनगिनत ‘भाषायी माध्यम’ के होते हुए यह एक राष्ट्र विशेष के लिए परमावश्यक हो जाता है कि वह एक ऐसे ‘भाषायी माध्यम’ का चुनाव करे जिसका प्रयोग कर उस देश का नागरिक अपने भाव या विचार लिखकर,बोलकर या सुनकर समझा सके।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना को अपना मूलमंत्र मान सम्पूर्ण विश्व के देश अपने विकास और मानव कल्याण हेतु एक मंच आयोजन करते हैं। जहाँ विश्व के सभी छोटे बड़े देश मिल बैठकर आपसी सहयोग एंव सहभागिता के साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति एंव सुव्यवस्था स्थापित करने को सतत् प्रयासरत हैं,,। यहाँ भाषा का ‘अन्तर्राष्ट्रीय स्तर’ प्रकाशमान होता है,,,ऐसे मे विश्व मंच को एक ऐसे ‘भाषायी माध्यम’ का चयन करना होता है जिसका प्रयोग कर वहाँ एकत्रित सभी देश अपने भाव और विचार लिखकर,बोलकर,या सुनकर समझा सकें।
इसप्रकार अपने मृदुल वात्सल्यमयी शैशव काल से भाषा मानवीय पर्यावरण के व्यक्तिगत,सामाजिक,राजनीतिक,राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक विकसित एंव पल्लवित होती हुई पहुँचती है। स्तरों मे विकास होना सतत् चलायमान होता है,, परन्तु भाषा की परिभाषा वही रहती है,,, ‘एक ऐसा माध्यम जिसके द्वारा अपने विचारों को लिखकर,बोलकर या सुनकर समझाया जा सके।” परन्तु इस सरलतम् रूप से परिभाषित भाषा व्यक्तिगत,सामाजिक,राजनीतिक,राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तरों पर अपने इन सभी स्तरीय स्वार्थों की पूर्ति का साधन मात्र बन कर रह गई है,,,जोकि दुर्भाग्यपूर्ण हैं।
भाषा का हित अभिव्यक्ति का माध्यम बनने मे है,,इसे स्वार्थपूर्ति का साधन ना बनने दें। इसकी सरलतम् परिभाषा को विभिन्न स्तरों पर मनोभावों की अभिव्यक्ति से मृदुल और वात्सल्यमयी रहने दिया जाए,तभी भाषा का अस्तित्व पूर्णता प्राप्त कर सकता है।

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