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चाय की गुमटी के पास का वह बहता ‘नलका’ ,,,,।

meriabhivyaktiya
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प्रत्येक मनुष्य अपनी दिनचर्या के कुछ काम बड़े नियमित और मनोयोग से करता है,यह काम उन्हे अधिक प्रिय हो जाते हैं क्योंकि यह उनका ‘अपना नीजि समय’ होता है। कार्य का कार्यवहन काल भले ही छोटा क्यों ना हो, उन्हे पूरी तन्मयता से जिया जा सकता है।मेरी भी दिनचर्या मे कुछ ऐसे काम हैं जिन्हे मै पूरी तन्मयता से जीती हूँ,,,ऐसा ही एक काम है, सुबह बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर बस स्टाॅप से बस पर चढ़ाकर दूध लेने निकट के ‘मदर डेयरी बूथ’ जाना। मौसम चाहे जैसा भी हो, इतवार के अलावा मै आलस्य नही करती।
एक सुनिश्चित रफ्तार मे,एक निश्चित समय के अन्दर ,स्वयं के विचारों की आवाजाही लिए घर वापस आ जाती हूँ। कभी किसी जटिल पहेली का हल खोज, एक सफल वार्तालाप की उपलब्धी लिए,,,,,, तो कभी बुरी तरह उलझ माथे परे प्रश्नसूचक रेखाओं के लिए वापस लौटती हूँ।
मेरी काॅलोनी के गेट के सामने से निकलने वाली सड़क जैसे ही बाज़ार की ओर मुड़ने वाली तिमुहानी से जुड़ती है, वहीं फुटपाथ के दूसरी तरफ एक चाय की गुमटी है। चाय की दुकान के पास ही जमीन से बहुत कम ऊँचाई पर लगा एक ‘नलका’ रोज़ मेरा ध्यान आकर्षित करता है। आज भी मेरी दृष्टि उस नलके से बह कर गिरने वाले पानी की आवाज़ ने खींच ली । कभी इस नलके पर “टोटी” लगी होती है,तो कभी बिना टोटी के सरकटे पाइप से अनवरत् जल बहता रहता है।
आज नलका गायब था,,या तो टूट गया होगा या सार्वजनिक सम्पत्ति पर कोई सज्जन हाथ साफ कर गया होगा। “जल ही जीवन है” ,, “पानी का मोल पहचानिए” या “जलसंरक्षण जागरुकता अभियान” जैसे ढेरो राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के किए जा रहे प्रयास तब मुझे नलके के नीचे बने गड्ढे मे बहते दिखे। मै भी दूध का पात्र लिए ‘अमूल्य स्वच्छ पेय जल’ को बहता देख कर भी अनदेखा कर आगे बढ़ गई। मै शायद यह जानती हूँ कि- यदि मैने ‘नलका’ लगवा भी दिया, चार दिन बाद यही हश्र होना है।
पर ऐसा नही की मै जल संरक्षण नही करती,,,,,जहाँ मेरी पहुँच है,,और मुझे पता है की मै यहाँ अपने दायित्व का निर्वाहन अधिक सक्षम् रूप से कर सकती हूँ, वहाँ पूरी तरह से अनुपालन करती हूँ । और मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि परिवार के सदस्य इस महत्व को अच्छे से समझते हैं एंवम् जागरूक हैं।
आत्मचिन्तन कर मैने पाया है कि,,,किताबी ज्ञान,,वेद-पुराण कभी ‘प्रकृति’ से अधिक प्रभावशाली शिक्षक नही सिद्ध हो सकते।कितने ही जनसंपर्क साधनों से हम स्वंय को जागरूक बनाते हैं ,,परन्तु ज़रा सोचिए,,, हम मे से कितने इस जागरूकता से अर्जित ज्ञान को व्यवहार मे लाते हैं,,,, आधी बाल्टी पानी से भी कार की सफाई हो जाती है,,,,लेकिन कुछ लोगों की कारें जब तक पाइप से तेज प्रवाह मे निकलते पानी से पूरी तरह सड़कों तक को नही नहला लेतीं ,,चमक नही आती उनमे,,,,,यह मात्र एक छोटा सा उदाहरण रोज़ देखती हूँ दूध लाते समय।
बात मात्र जल संरक्षण की ही नही,अनगिनत मुद्दे हैं,,,,,। व्यक्तिगत, पारिवारिक,सामाजिक,राष्ट्रीय या उससे भी ऊपर के स्तरों पर जीवन को व्यवस्थित,सुसंगठित एंवम् सुचारु रूप से चलाने के लिए एक तथाकथित ‘नियमावली’ है,,, निर्देशानुसार अनुपालन विरले को करते ही देखा गया हैं। मै दोषारोपण नही कर रही,,एक स्वाभाविक मानव आचरण की चर्चा कर रही हूँ,,,,।कहीं न कहीं मै भी इस श्रेणी मे आती हूँ।
‘नल के बहते जल’ को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। क्योंकी अभिव्यक्तियों के भवन निर्माण के लाए एक नींव की आवश्यकता होती है। जैसे जैसे दिन आगे खिसकता जाएगा,,आस -पास की ‘फूड स्टाल’ या ‘मोटर मैकेनिक’ अपने प्रयोजन अनुसार पानी ले जाएगें। टोटी ना होने के कारण खोलने और बंद करने का ऊगँलियों का श्रम बच जाएगा,,, जल का महत्व तब समझ आता है जिस दिन पानी की सप्लाई ठप्प हो जाती है। पानी की तलाश मे या तो भटकना पड़ता है या एक ही दिन मे ‘कम पानी मे काम कैसे चलाए’,,के गुर आ जाते हैं।
कुछ दिनो पहले पुत्र के साथ भौतिक विज्ञान के एक विषय पर चर्चा हुई उसने बताया,, इस पृथ्वी पर कुछ भी कभी व्यर्थ नही जाता’ एक सिद्धान्त का उल्लेख इस परिपेक्ष मे उसने किया ‘ऊर्जा कभी व्यर्थ नही जाती वह परिवर्तित हो जाती है’,,, यह तथ्य बहुत रोचक लगा।पढ़ा मैने भी होगा परन्तु कुछ तथ्य आत्मानुभव से ही स्पष्ट होते हैं। मै आज की अभिव्यक्ति के विषय को यदि विज्ञान के इस नियम से जोड़कर देखूँ तो,,,,,, ‘नल का बहता पानी’ यदि किसी ‘ऊर्जा’ का स्वरूप है तो वह बह कर गड्ढे से वापस धरातल मे पहुँच रहा है,,यदि पक्की जमीन पर है तो सूर्य की गरमी से वाष्पीकृत हो वायुमंडल मे पहुँच रहा है,,,,,,, परन्तु मेरे इस कथन का कदापि यह अभिप्राय नही की हमें नलको से पानी बहता छोड़ देना चाहिए। ‘पेय जल’ सीमित प्राकृतिक संसाधन है,,और इसका संरक्षण परमावश्यक है। कार्य और कारण मे एक पारस्परिक गुथाव होता है,,जो विषय,वस्तु एंवम् परिस्थितियों के अनुरूप स्वभावतः वैभिन्नता लिए होते हैं,,,मेरे विचार ‘चाय की दुकान के पास बहते नलके’ को देख उपजे हैं।
उस बहते हुए स्वच्छ पेय जल को देख अन्य व्यक्तियों मे भी ‘जलसंरक्षण की चेतना’ अवश्य जागृत हुई होगी,,,।वह भी अपने परिजनों को इस चेतना के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास करेंगें,,,,,,तो जल का ‘बहना’ व्यर्थ नही ,,,,यह कार्य परिस्थिति जन्य था,,,।,मेरे विवेक ने ‘जल ही जीवन’ के महत्व को इतने व्यवहारिक रूप मे समझा। भविष्य मे ‘भूमिगत जल’ के क्षय होने के दुष्परिणाम को सोच अभी से इसके संरक्षण मे प्रयासरत होने की सिख दी।
विज्ञान, प्रकृति और मानव विवेक एंवम् बौद्धिक विश्लेषण द्वारा कार्य कारण सम्बन्ध स्थापित करते प्रयोगों का लेखा जोखा है। जिसकी प्रयोगशाला, पाठशाला, निष्कर्षशाला सब प्रकृति ही है। यही बात मानव आचरण पर भी लागू होती है । यहाँ व्यर्थ और अकारण कुछ भी नही। आवश्यकता है ,,,समस्त इन्द्रियों को जागृत रखिए,,,अनुभवों का सही विश्लेषण कर उनसे सीखिए,,,और अपनी ऊर्जा का उपयोग कीजिए,,,,क्योंकी ‘ऊर्जा कभी व्यर्थ नही जाती ,,,परिवर्तित हो जाती है’।
रोज सुबह दुध लेने जाने मे लगने वाली ऊर्जा ने मुझसे यह लेख लिखवा दिया,,,,,अवश्य ही इसके पीछे प्रकृति का कोई नियम या कारण निहित होगा। जिसके परिणाम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं अवश्य प्रस्फुटित होंगें। परन्तु मेरा मन अब परिणामों की चिन्ता नही करता,,,,,जो मिल रहा है बस उसे देखने,,,करने,,और जीने का करता है।

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