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“मै”

meriabhivyaktiya
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मेरा ‘मै’ कुछ सुगबुगा सा उठा है,साधारणतयः बहुत ही शान्त रहने वाला अन्तरमुखी है। आज अकस्मात बोल उठा,और बहुत कुछ बोल गया,,,,,,,,मै न तो कट्टर नारीवादी हूँ न ही विरोधी, ये विचार एक सहज मनोभावों का बहाव है। नारी को प्रकृति का रूप माना गया है,प्रकृति एक गूढ़ रहस्य है। नित नए रहस्य प्रकृति को एक नवीनता प्रदान करते हैं, यही उद्घाटित रहस्य जीवन के प्रति जिज्ञासा का पुट डाल देते हैं एंव जीवन मे प्रगतिशीलता बनाए रखते हैं।
सृष्टि की समस्त नारी जाति रूप रंग,आचार व्यवहार मे भिन्नता लिए हुए क्यों न हो परन्तु उनका ‘स्त्रैण’ उनकी आत्मा का मूल समभावी होता है। वेद-पुराणों मे स्त्री को भौतिकता का प्रतीक माना गया है, और प्रकृति के गुणों को स्त्री गुणों का दर्पण कहा गया है।
जब ‘मै’ की बात करती हूँ तो डूब जाती हूँ एक प्रश्न चिन्ह अपना आकार बड़ा करता नज़र आता है,,,,,,मेरा नाम मेरी पहचान है? या मेरे द्वारा निभाई जाने वाली विभिन्न भूमिकाएं मेरी पहचान हैं? जब सुनती हूँ “खुद से प्यार करो” तो भ्रमित हो जाती हूँ,,,, कि अपने द्वारा निभाई जाने वाली कौन सी भूमिका से प्यार करूँ???????? क्योकि मै मुझमे बहुत कुछ समेटे हुए हूँ,,,,किसी एक का त्याग करते ही मेरा व्यक्तित्व अधूरा हो जाता है।
नारी की सृष्टि जन्मदायिनी, जीवनचक्र को निरन्तरता प्रदान करने वाली, ऊर्जा एंव शक्ति संचार, करने वाली एक ऐसी सशक्त धुरी के रूप मे हुई है, जिसके कारण सृष्टि सतत् प्रवाहवान है। स्त्री ‘मै’ का विस्तार कितना व्यापक और रहस्यमयी है इसकी कल्पना करपाना असम्भव है।
जीवन के कई उतार-चढ़ावों की मूक दृष्टा रहकर मैने बहुत कुछ सीखा,और अनुभव अर्जन चालू है। अपने उन्ही अनुभवों को व्यक्त करने लगी हूँ आज,,,!!!!
पृथ्वी की भांति बहुत कुछ गर्भ छुपाकर रखा,उपरी सतह स्थिर आन्तरिक हलचल को कभी प्रकट नही होने दिया, परन्तु कुछ असहनीय हुआ तो हलचल भूकंप की तरह आई और बस्तियां उजाड़ गई। ,,,, हताहत ‘मै’ भी हुआ , ये विनाश अनुभवों के ध्वंसावशेष छोड़ गए।
अपनो मनोभावों को जब खुल कर प्रस्फुटित होने दिया,,,,पृथ्वी पर ऋतु-परिवर्तन देखे गए। “मै” जब प्रेम से सराबोर हो उठी तो बसंत सर्वत्र अपना सौन्दर्य बिखेर गया,,,रंग-बिरंगे पुष्पों और आम के बौर की महक, मादकता और नैसर्गिकता के चरम पर पहुचँते हुए देखी गई।
क्षोभ,कष्ट,वेदना की ऊष्मा ने ग्रीष्म ऋतु कि भांति पूरे वातावरण को शुष्क और कटीला बना दिया,,,ऊष्मा और ताप से नदियों का जल वाष्प बन मेघ बन गए,,,,,और जब ये मेघ भारी होकर द्रवित नयनों से बरस पड़े तो वर्षा ऋतु का आगमन हुआ।
“मै” जब स्वंय को व्यक्त करने मे असमर्थ हुआ, अपेक्षा की,,,,कोई मेरे नयनों की मूकभाषा को समझ जाए,,,मेरी कर्तव्यपरायणता, मेरी निष्ठा,मेरे समपूर्ण समर्पण को स्वीकृति दे,,,,,अनुकूल प्रतिक्रिया के संकेत ना मिलने पर मैने स्वयं को ‘शीत-काल’ की भांति सिकोड़ लिया,,,अपनी इच्छाओं ,आशाओं को ह्दय के मोटे कम्बल मे लपेट लिया।
मै चंचल नदी की भांति निःशब्द नीरव जंगलों मे जीवन के सभी अवसादों को परे रख अलमस्त हो बही ,,,ऊँचे पहाड़ों से पूरे आवेग के साथ बेपरवाह हो नीचे गिरी,,,,,सब कुछ अपने वेग मे समेटे मै बहती गई,,,देती गई,,बिखरती गई,,सिमटती गई,,झुकती गई,,खुद को संवारा भी,संभाला भी,उजाड़ा भी और बसाया भी,,,,,,,,,,,,,, एक छोटा सा “मै” ,,,,,, इतना विस्तृत,,, अचम्भित कर गया!!!!!!! खुद को किसी के बाहुपाश में बांध अपने सभी गुण-दोष ,सफलता-असफलता की चिन्ता को दरकिनार रखने की आशा भी की, तो सभी बंधनों को तज उन्मुक्त गगन मे उड़ने भी लगी।
ज़िद भी की,नादानी भी की, परस्वार्थ का साधन भी बनी,,,, सह भी गई,,कह भी गई,,,,मेरा रूप तो वृहद विशाल है,,,,किस रूप से प्यार करूँ?????? यह सब बस लिखा,किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की अभिलाषा नही। एक चंचल मृग की तरह अभिव्यक्तियाँ कुलाचें भरने लगी ,हाथों की उंगलियाँ लिसपिसा उठीं,,,और कलम चल पड़ी।
‘मै’ दयनीय नही है,,वह चट्टानों सा सशक्त और कठोर भी है, “मै” सहानुभूति की याचना नही करता,,,,स्वालम्बी,दृढ़निश्चयी ,और परिस्थिति के अनुरूप ढालने मे यथासम्भव सक्षम है। जीवन के दायित्वों का निर्वाहन कुशलतापूर्वक करते हुए अपनी अभिरूचियों और संवेदनाओं को सवांरना और संचित करना भलि-भांति जानता है।
मैने ये अनुभव किया है सृष्टि की सुन्दरतम रचना हूँ “मै” ,,,,, एक अद्भुत शक्ति का संचार पा रही हूँ आज। एक लम्बा सफर तय करना है,, उत्सुकता है कौतूहल है मार्ग मे आने वाले पड़ावों के प्रति ,स्वयं को और जान पाने के प्रति ,,और आप साथ हैं तो सांझा करने का अवसर भी मिलता रहेगा,,,इसी आशा के साथ लेखनी को विराम,,,,,।

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