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एक अनुभूति सर्द प्रभात की सिहरन के साथ पाई, जब जीवन मे ‘कविता’ को जीने लगे मनुष्य ,तो उसे लिख पाना कठिन होजाता है। सुन्दर उपमाएँ ,अलंकार,शब्द सब आसपास नर्तन करते हैं परन्तु उन्हे एक निश्चित निर्धारित पंक्तियों मे समेट पाना कठिन हो जाता है।
पद्य गद्य बनने लगता है ,और गद्य मे पद्य का रस आने लगता है,,,,आपको हास्यकर लगा ना,,,? पर मेरे साथ ऐसा अक्सर होता है। कुछ वैसा ही जैसा रसना द्वारा स्वादिष्ट भोजन का रसास्वादन पाकर जो आत्मतृप्ति होती है उसे खाने वाला अनुभव तो करता है परन्तु तत्काल उसकी अभिव्यक्ति नही कर पाता।
एक विचार यह भी आया कि- काव्य को जीने मे जब परमानंद की अनुभूति होने लगती है तब ह्दय अधिक सक्रिय हो धमनियों मे भावनाओं का रक्तसंचार सम्पूर्ण वेग के साथ करने लगता है,फलतः मष्तिष्क की ‘सोच-विचार’, “नाप-तोल” करने का चातुर्य निष्क्रिय पड़ जाता है। हाथ मे कलम और डायरी लेकर बैठ तो जाती हूँ, परन्तु ह्दय से होने वाली भावनाओ का निरन्तर प्रवाह हाथों रोक देता है, मष्तिष्क उनके वशीभूत हो बोल उठता है- “अरे ज़रा रूक ,,,,इस मखमली एहसास के हर एक घूंट का ज़ायका लेते हुए पी तो लूँ,,,,,,,!!!! समस्त इन्द्रियां भावनाओं के समुन्दर मे गोते खाने लगती हैं। कैसे दिल दिमाग पर हावी होता है,,,,,,,,,,, है ना,,,,!!!!
भावनाओं के रसास्वादन मे पूर्णतया सराबोर होने के पश्चात जब मै उस अलौकिक तंद्रा से बाहर आकर कुछ नपे तुले शब्दों में अभिव्यक्ति करने का प्रयास करती हूँ तब मुझे शब्दों का अभाव दिखता है और यदि शब्दों का जुगाड़ कर भी लिया तो वह रस नही भर पाती जिसका पान मैने किया।
शुष्क मरुस्थल मे बैठ निर्मल शीतल जल की प्यास मे कई कविताएँ लिख जाएं,परन्तु जब तिलमिलाती प्यास मे शीतल जल मिलजाए,,,,,, उस तृप्ति की अभिव्यक्ति कर पाना क्या सचमुच सम्भव है,,,,,?
‘कविता’ का जीवन मे आना ईश्वरीय आशिर्वाद है,,,,, मनुष्य का प्रारब्ध है। जो इस आशिर्वाद से अविभूत हुआ,,,जिसने कविता को ‘जिया’ वह बस उसी का होकर रह गया,फिर तो कविता एक वातावरण के भाति चतुर्दिक आच्छादित हो जाती है, मनुष्य कवितामयी हो प्रत्येक क्षण को ‘जीने’ लगता है, जीवन के अन्य सभी कार्य स्वचालित हो जाते हैं। एक ऊर्जा एक रचनात्मकता का सृजन होता है, और यह रचनात्मक सृजन व्यक्तित्व को एक आभा प्रदान करते है।
यहाँ तक लिखने के बाद मै इस निष्कर्ष पर आई कि प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन की ‘कविता’ को पहचान कर उसे पाने का प्रयास करना चाहिए,,,,और यहीं से एक विकास प्रक्रिया का उद्गम होता है,,,,,,’प्रयास’ ‘प्राप्ति’ ‘प्रवाह’,,,,,,,,।
जब हम कविता को जीवन मे लाने का यथासम्भव ‘प्रयास’ करते हैं,,, साधना कर उसे शब्दों से सुस्जित करते हैं,,, भावों का आलिंगन देते हैं,,और अभिव्यक्ति का प्रोत्साहन देते हैं,,, विचारों का आदान-प्रदान,,,,,करते हैं, यह एक लम्बी प्रक्रिया होती है। परिणाम स्वरूप विकास का द्वितीय चरण ‘प्राप्ति आता है। दोनो के पारस्परिक विलयन का चरण , एक दूसरे मे पूरी तरह डूब एकीकार होजाने का समय,,,,,,।
पारस्परिक विलयन के फलस्वरूप कविता की हर विधाओं से परिचित हो हम कवितामयी हो जाते हैं इतना आत्मसात कर लेते हैं एक अन्य को,, कि विकास के तृतीय चरण मे पहुँच ‘प्रवाहित होने लगते हैं,,,उसे जीने लगते हैं। इस चरण मे अभिव्यक्ति के लिए सोचे विचारे’, नपे तुले अथवा सटीक शब्दों की जुगाड़ की आवश्यकता नही होती। काग़ज -कलम लेकर बैठते ही भाव अविरल रूप से प्रवाहित होने लगते हैं।
अविरल भाव प्रवाह की इस बेला मे आत्मअभिव्यक्ति के दो रूप दिखाई देते हैं,,,, या तो वह निःशब्द या मूक हो जाती है,,,,या फिर काग़ज पर खींची लाइनों की परवाह किए बगैर लहराती हुई रस-सागर उड़ेलती हुई बहने लगती है। सब स्वचालित हो जाता है, उन्मुक्त हो जाता है।
मै भी जीवन मे कविता को लाने के लिए सतत् प्रयासरत हूँ ,अपनी इस प्रयास यात्रा की शुरूवाती रूपरेखा को इस लेख मे खींचने का प्रयत्न किया है,,,,,पता नही यह लेख विकास के तीन चरणों ‘प्रयास’,प्राप्ति’ और ‘प्रवाह’ तीनों मापदंडों पर खरा उतरा या नही ,,,इसका निर्णय आप पर छोड़ा
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