meriabhivyaktiya
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आज द्रवित भावों को उन्मुक्त हो,
अविरल कागज़ पर बह जाने दो।
छंदबद्धता की तोड़ सीमाओं को,
कविता में ढल रच जाने दो।
सशक्त जीवन के आधार लगे हिलने,
रोको न इसे ढह जाने दो।
परिवर्तन का चक्र धड़ाधड़ भागे,
स्वीकारो परिवर्तन व्यर्थ न जाने दो।
नवजीवन अंकुर भविष्य में अकुलाए,
आशाओं को हो सिंचित नव उम्मीद जगाने दो।
ध्वंसावशेष की बानगी बतलाये वह बातें,
धूल से कर अभिषेक, कूट शब्द् खुल जाने दो।
मोह बंध से परे जीवन की यह थिरकन,
आत्मसात कर भाव, सत्य सुगम हो जाने दो।
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